इस कहानी का अंत नहीं

गहन पीड़ा की उपज – इस कहानी का अंत नहीं

 

जिज्ञासा को जन्म देने वाली बेचैनी मुझे पुस्तक के पन्ने पलटने के लिये मजबूर करती रही, उंगलियों की हरकत जारी रही, रुकी तब, जब सोच शिथिल हुई और ठिठकी, नीचे पहली पंक्ति पर नज़र पड़ते ही…. “एक कागज के टुकड़े से कहानी बनी”….सोचती रही , यह कैसा बेजोड़ जोड़ है। कागज़ के टुकड़े से कहानी बनी का क्या मतलब….. पर जब पढ़ती रही तो लगा कि जो कहानी निरंतर प्रवाहित होने के लिये सक्रिय रहती है और समग्र रूप से जीवन से जुड़ती है , वही शायद कहानी है, वही उसका श्रोत भी।

मानव मन वैसे भी लेखिनी की हर विधा का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि होता है, जहाँ भावनात्मक ऊर्जा निरंतर मंथनोपरांत प्रवहमान होती रहती है। कहानी में लेखक अपने रचनात्मक संसार में विलीन हो जाता है, अपने पात्रों के साथ उठता-बैठता है, उन्हीं की तरह सोचता है , सक्रिय रहता है और यहीं आकर कल्पना यथार्थ का रूप धारण करती है। जी हाँ, वह जिज्ञासा को जन्म देनेवाला कहानी संग्रह “इस कहानी का अंत नहीं” है , जिसकी रचनाकार जानी-मानी प्रवासी कथाकार इला प्रसाद हैं जो अपनी ही सोच के तानों-बानॊं से उलझती हुई, प्रसव की गहन पीड़ा को महसूस करते हुए , इस पुस्तक की भूमिका में लिखती हैं- “इस संग्रह की एक- एक कहानी के पीछे , वर्षों की भोगी हुई पीड़ा ,घुटन और विवश क्रोध है, जो मुझे लगातार अन्दर ही अन्दर गलाते रहे हैं।” सोचती हूँ, जिन्दगी की ऐसी कौन सी कशमकश होगी जो ज्वालामुखी की तरह विस्फ़ोटित होने को आतुर है, ऐसा कौन सा तान्डव जीवन में आया होगा जो यह मानव मन मंथन के उपरांत अपने भाव क़लम के माध्यम से काग़ज़ पर उतार लेता है। पढ़ते-पढ़ते यह जाना कि इला जी की कहानियों की भूमिकायें रोजमर्रा जीवन की सच्चाइयों से ओत-प्रोत हैं।
उनकी कहानी “जीत” पढ़ते हुए पाया कि नारी मन का मनोबल रेत के टीले की तरह ढह जाता है। चुनौती देने वाले नौजवान छात्र दुश्मनी निभाने की चुनौती अपनी एक्ज़ामिनर मिसेज़ सिन्हा को देते हैं , तदुपरान्त नारी मन का यंत्रवत, सन्नाटे के घेराव में, अपने आप को अपराधी महसूस करते हुये स्थानीय अख़बार के दफ़्तर में लिखित बयान देना और अगले दिन तक एक ख़बर का बन जाना ज़ाहिर था। शायद नारी मन इसमें भी अपनी जीत देख रहा है , जीत और जीत के नशे का रंग भी कितना निराला है!
इलाजी की और अनेक कहानियाँ आज के वातावरण से जुड़ी हैं- ई मेल , रोड टेस्ट , ग्रीन कार्ड , सेल , कालेज – जिनका अब इस ज़माने में हर पाठक के साथ परिचय जरूरी है। भुमंडलीकरण के साथ तक़नीकी इज़ाफ़ा हुआ है और इंटरनेट के साथ जुड़कर ई मेल तक आ पहुँचे हैं हम। परन्तु इन सब विषयॊं पर एक आम इन्सान के नज़रिये से रोशनी डालना, अपनी विविधता, संकल्पशीलता और प्रस्तुतीकरण को एक सशक्तता प्रदान करना इला जी की खासियत है। “खिड़की” एक ऐसी ही कहानी है, नारी मन की पीड़ा, घुटन और अन्तर्द्वद का दस्तावेज है यह कहानी।
ज़िन्दगी की संकरी पगडंडियों से गुजरते हुये , इलाजी की कहानियों के क़िरदार उन लम्हात से रूबरू कराते हैं, जहाँ ख़ामोशियाँ भी शोर मचाती हैं. शहर के जीवन में अक्सर देखा जाता है कि बेपनाह सुविधाओं के बीच जहाँ कई सुख के साधन, धन दौलत मन चाही मुरादों को पूरा करने में मददगार साबित होते हैं , वही जाने क्यों और कैसे आम आदमी के दिल के किसी कोने में खालीपन का अहसास भर देता है और जब तक वह क़ायम रहता है , इन्सान अनबुझी प्यास लेकर जीवन के सहरा में भटकता है, तड़पता है।
“ग्रीन कार्ड” कहानी में हक़ीक़तों को दर्शाया गया है। परदेस से आनेवाला राजकुमार अपनी पसंदीदा, वतन की लड़की से नाता जोड़कर चला जाता है। कुछ वादे करके , कुछ वीज़ा के हवाले देकर और फ़िर देखते ही देखते दिन, हफ़्ते, महीने और फ़िर साल हाथ से रेत की तरह फ़िसलते चले जाते हैं। रिश्तों की शिला भरभरा जाती है। रिश्ते तो बुने जाते हैं पसीने के तिनकों से, अहसासों के तिनको से, सम्बन्धों की महत्त्व से, तब कहीं जाकर अपनत्व की वो चादर उस रिश्ते को सुख-दुख की धूप-छाँव में, बारिश, आँधी, तूफ़ान में महफ़ूज रखती है। रिश्ते निबाह- निर्वाह की नींव पर मान्यता हासिल करते हैं। भारत और विदेश की समस्याओं से गुज़रती एक नारी की कहानी है “ग्रीन कार्ड” जो चाह्कर भी अपनी नकारात्मक सोच से रिहाई नहीं पा रही। बेहद अपमान जनक स्थितियों के कारण उसके अन्दर का अँधेरा घना होता जा रहा है। उसका अन्तर्द्वद्व इस कहानी में बखूबी चित्रित हुआ है और पाठक उसे अपने रोज़मर्रा के जीवन में महसूस सकता है।
जीवन में कई ऐसे मोड़ आते हैं जो ज़िंदगी को नई माइने बख़्शते हैं. परस्पर दो प्राणियों की मुलाक़ात, उनकी गुफ़्तार और फिर सिलसिले धीरे धीरे यादों को गहरा कर देती हैं. इला जी ने अपनी क़लम के सहारे कई ऐसे पारदर्शी सम्बन्धों की कहानी अपनी स्मृति के गलियारे से मुक्त कर हमारे साथ बाँटी है। ये कहानियाँ कहीं कहीं संस्मरण, कहीं आधुनिकीकरण की दशा और दिशा से हमारा परिचय कराती हुई महसूस होती हैं। उन्हें इस संग्रह के लिये मेरी दिली शुभकामनायें हैं और उम्मीद ही नहीं यक़ीन है कि जीवन से जोड़ते हुये इस कहानी संग्रह को पाठकों का स्वागत और स्वीकृति मिलेगी।
समीक्षकः देवी नागरानी, ९ डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, बांद्रा, मुंबई ४०००५०.
कहानी संग्रहः इस कहानी का अंत नहीं, लेखिकाः इला प्रसाद, पन्ने=९६, मूल्य=रु॰ १२५, प्रकाशकः जनवाणी प्रकाशन, विश्वास नगर, दिल्ली ११००३२

वो मुस्काते हैं

देख कर तिरछी निगाहों से वो मुस्काते हैं
जाने क्या बात मगर करने से शरमाते हैं.

मेरी यादों में तो वो रोज चले आते हैं
अपनी आँखों में बसाने से वो कतराते हैं.

दिल के गुलशन में बसाया था जिन्हें कल हमने
आज वो बनके खलिश जख्म दिये जाते हैं.

बेवफा मैं तो नहीं हूं ये उन्हें है मालूम
जाने क्यों फिर भी मुझे दोषी वो ठहराते हैं.

मेरी आवाज़ उन्होंने भी सुनी है, फिर क्यों
सामने मेरे वो आ जाने से करताते हैं.

दिल के दरिया में अभी आग लगी है जैसे
शोले कैसे ये बिना तेल लपक जाते हैं.

रँग दुनियां के कई देखे है देवी लेकिन
प्यार के इँद्रधनुष याद बहुत आते हैं. 118

प्रवासी साहित्य

भारतीय पत्रिकाओं और समीक्षा में प्रवासी साहित्य/साहित्यकारों का प्रतिनिधित्व और मूल्यांकन
भाषा हमारे और आपके विचारों का माध्यम है। हिंदी को राष्ट्रीय भाषा से अंतराष्ट्रीय भाषा के मंच पर स्थापित करने के लिये हिंदी के साहित्य को संगठित होना पड़ेगा, इसमें कोई दो राय नहीं है. बाल गंगाधर तिलक ने कहा है “देश की अखंडता-आज़ादी के लिए हिंदी पुल है” अगर ऐसा है तो अब हमारी राष्ट्रभाषा देश-विदेश में रचे जा रहे साहित्य को जोड़ने का काम करेगी. हिंदी लेखकों ने कर्मभूमि बदली है पर अपने देश की भाषा, संस्कार एवं संस्क्रुति अपने साथ लाए हैं, जो उनकी विरासत है.
अपनी साहित्य की रचनात्मक दुनिया में कई संस्थानों से जुड़े रहकर विदेश में हिंदी सेवक, हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार को नियमित रूप से आगे बढ़ा रहे हैं. अब उनकी बातचीत साहित्य की चौखट पार करती हुई सवालों के दरमियान मुड़ी है प्रवासी साहित्य के भविष्य की ओर. प्रवासी साहित्य की इस नई प्रवृत्ति की ओर ध्यान नहीं दिया गया है और उपेक्षा-भाव रखा जा रहा है, इस सिलसिले में कुछ मान्यताएँ, कुछ शंकायें, कुछ समाधान भी सामने आ रहे है.
गुफ़्तगू की धारा में आते-जाते हिन्दी भाषा को लेकर जो साहित्य का सफ़र है इसी की राह की विडंबनाएँ, अड़चनाएँ, उपेक्षाएँ पढ़ते हुये जहाँ हैरानी होती है, वहीं ख़ुशी भी होती है. हैरानी यह जानकर कि साहित्य का मूल्याँकन करने वाले अपनी विचारधारा, अपनी सोच से समीक्षात्मक टिप्पणियों से यह जतलाते हैं कि प्रवासी साहित्य तो साहित्य ही नहीं है और अगर है तो वह आधुनिकता से शून्य है। ख़ुशी इस सोच की प्रस्तुति से होती है कि जाने माने वरिष्ट साहित्यकार प्रवासी पुस्तको की प्रष्ठ भुमिकाओं में अपनी विचारधाराओं से स्पष्टीकरण करते हैं कि हिन्दी का प्रवासी साहित्य हिन्दी का ही साहित्य है, जो परदेश में रचा गया है, औेर जो हिन्दी साहित्य को अपनी मौलिकता एवं नये साहित्य संसार से समृध्द करता है। इस प्रवासी साहित्य की बुनियाद भारत-प्रेम तथा स्वदेश-परदेश के द्वन्द्व पर टिकी है.
महात्मा गाँधी ने विश्वग्राम का जो सपना देखते हुये कहा था- ”मैं नहीं चाहता कि मेरा घर चारों ओर दीवारों से घिरा रहे। न मैं अपनी खिड़कियों को ही कसकर बंद रखना चाहता हूँ। मैं तो सभी देशों की संस्कृति का अपने घर में बेरोक-टोक संचार चाहता हूँ।”  आज विज्ञान के प्रसारित ज्ञान के एवज़ में इंटरनेट के द्वारा विश्व जुड़ता हुआ नज़र आता है, अपनी सारी भौगोलिक सीमाएँ तोड़कर एक ‘विश्वग्राम’ को साकार स्वरूप देकर।
वैश्विकता की पुरज़ोर वकालत के बाद भी प्रवासी साहित्य आमधारा की साहित्यिक पत्रिकाओं में जगह पा सकता है या नहीं यह निर्णय करना सरल तो नहीं पर नामुमकिन भी नहीं. उसका आधार लेखक के साहित्यिक सफ़र, उसकी रच्नात्मक ऊर्जा , उसकी गहराई और गीराई पर निर्भर है, जहाँ लेखक ख़ुद को अनुकूल परिस्थितियों, व उनके साथ जुड़ी हुई हक़िकतों को ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त करता है, नि्वाह करता है और निबाह करता है.
देवी नागरानी
न्यू जर्सी, यू एस. ए

रायपुर में सृजन-श्री सम्मान

 न्यू जर्सी, अमेरिका की प्रवासी साहित्यकार देवी नागरानी को ग़ज़ल लेखन के लिए १६-१७ फरवरी को देश की महत्वपूर्ण साहित्यिक संस्था सृजन-सम्मान द्वारा सृजन-श्री से अलंकृत किया गया । उन्हें सम्मानित करते हुए धर्मयुग, नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक व वर्तमान में नवनीत के संपादक, विश्वनाथ सचदेव, वरिष्ठ आलोचक व प्रवासी साहित्य विशेषज्ञ कमलकिशोर गोयनका, तथा उत्तरप्रदेश के पूर्व विधानसभा अध्यक्ष व वरिष्ठ साहित्यकार केशरीनाथ त्रिपाठी

 प्रस्तुतकर्ता जयप्रकाश मानस पर बुधवार, मार्च 05, 2008
 

प्रवासी साहित्य – नई व्याकुलता और बेचैनी


प्रेमचंद स्कालर और प्रेमचंद विशेषज्ञ श्री कमल किशोर गोयनका से रूबरू हुई अमेरिका की साहित्यकार सुधा ओम ढींगरा, जो अपनी साहित्य की रचनात्मक दुनिया में कई संस्थानों से जुड़ी रहकर हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार को नियमित रूप से आगे बढ़ा रही हैं। उनकी बातचीत साहित्य की चौखट पार करती हुई सवालों के दरमियान मुड़ी है प्रवासी साहित्य के भविष्य की ओर। प्रवासी साहित्य की इस नई प्रवृत्ति की ओर ध्यान नहीं दिया गया है और उपेक्षा-भाव रखा जा रहा है, इस सिलसिले में कुछ मान्यताएँ, कुछ शंकायें, कुछ समाधान जो श्री कमल किशोर ने अपनी बातचीत के दौरान विस्तार से खुलासा किये हैं, उनको जानते हुये उनका लगाव हिन्दी के प्रवासी साहित्य के प्रति जाहिर होता है। हिन्दी साहित्य के प्रचार-प्रसार तथा प्रतिष्ठा के लिये वह जो प्रोत्साहन का कार्य कर रहे हैं वह काबिले-तारीफ़ है।
गुफ़्तगू की धारा में आते-जाते हिन्दी भाषा को लेकर जो साहित्य का सफ़र है इसी की राह की विडंबनाएँ, अड़चनाएँ, उपेक्षाएँ पढ़ते हुये जहाँ मुझे हैरानी हुई, वहीं ख़ुशी भी हुई। हैरानी इसलिये हुई यह जानकर कि साहित्य का मूल्याँकन करने वाले अपनी विचारधारा, अपनी सोच से समीक्षात्मक टिप्पणियों से यह जतलाते हैं कि प्रवासी साहित्य तो साहित्य ही नहीं है और अगर है तो वह आधुनिकता से शून्य है। ख़ुशी इस सोच की प्रस्तुति से हुई कि श्री कमल किशोर जी की मान्यता एक नहीं अनेक विचारधाराओं से स्पष्टीकरण देती है कि हिन्दी का प्रवासी साहित्य हिन्दी का ही साहित्य है, जो परदेश में रचा गया है।
हिन्दी हमारे भारत देश की राष्ट्रभाषा के पहले हमारी मातृभाषा भी है जो आदान-प्रदान का माध्यम है, हर क्षेत्र में, घरों में, स्कूल-कालेज में, कई कार्यशालाओं में, जहाँ के कर्मचारी अँगरेज़ी भाषा से ज़्यादा परिचित नहीं हैं। बात भाषा की है- हिन्दी भाषा की, कोई भी साहित्य जो हिन्दी में रचा है या रचा जा रहा है वह हिन्दी का साहित्य ही है, अन्यथा कुछ नहीं, साहित्य की धारायें तो अपनी-अपनी विचारधाराओं की उपज हैं।
जिस किसी भाषा में एक रचनाकार क़लम के ज़रिये साहित्य कला को प्रस्तुत करेगा वह उसी भाषा का साहित्य होगा। अगर सिंधी भाषा में लिखा गया कोई लेख, आलेख, संस्मरण, कहानी, गीत या ग़ज़ल – जो भी स्वरूप रचना का हो तो वह सिंधी साहित्य का हिस्सा ही है, चाहे वह भारत में बैठकर लिखा गया हो या विदेश में और वह बिल्कुल पत्रिकाओं और अख़बारों में छपता है क्योंकि सिंधी लेखक की रचना उसकी मूलभाषा में है। कभी तो संपादकों की माँग रहती है कि कुछ प्रवास की रोजमर्रा ज़िंदगी के बारे में, आचार-विचार के बारे में, या वहाँ जो दिक्कतें, दुश्वारियाँ सामने आती हैं उनके बारे में लिख भेजें।
श्री कमल किशोर जी से मैं सहमत हूँ, जिनका कहना है- ”प्रवासी साहित्य हिन्दी का साहित्य है जिसका रंग-रूप, उसकी चेतना और संवेदना भारत के हिन्दी पाठकों के लिये नई वस्तु है, एक नये भाव-बोध का साहित्य है, एक नई व्याकुलता और बेचैनी का साहित्य है जो हिन्दी साहित्य को अपनी मौलिकता एवं नये साहित्य संसार से समृध्द करता है। इस प्रवासी साहित्य की बुनियाद भारत-प्रेम तथा स्वदेश-परदेश के द्वन्द्व पर टिकी है।” साहित्य तो एक माध्यम है अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का, समाज में एक-दूसरे के साथ जुड़ने का शंकाओं से निकलकर समाधान पाने के रास्तों पर बढ़ने का। यहाँ पर उनकी पारखी नज़र और दूरदेशी को मान्यता देते हुये यही कह सकती हूँ कि उनके सुझाये हुये समाधान जो प्रवासी हिन्दी साहित्य को हिन्दी की मुख्यधारा का अंग बना सके और इस बात को भी उजागर कर सके कि साहित्य का उद्देश्य साहित्यिक ही है, राजनीतिक नहीं। अगर कोई दलित लेखक या उस साहित्य का शोध करने वाला दलितों के बारे में, उनकी समस्याओं के बारे में, कुछ शंकाओं, समाधानों का विवरण एक राय के तौर पर प्रस्तुत करता है तो वह दलित साहित्य ही हो जाता है और वह पूरे हक के साथ प्रकाशित होता है और होना भी चाहिये। साहित्य राजनीति नहीं है।
इस आधुनिक युग में जहाँ युवा पीढ़ी अपनी पढ़ाई के उपरांत बाहर जाती है विकास के लिये तो भारत की वह संतान अपने साथ भारतीय परम्पराएँ और संस्कृति भी ले जाती है, जिसे वह अपनी आने वाली नस्ल को भी प्रदान करने की भरपूर चेष्टा में लगी हुई है। यह इस बात का पुष्टीकरण है कि जैसे-जैसे अमेरिका में भारतीयों की संख्या बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे हमारे कुछ कर्मठ हिन्दी प्रेमी बड़ी लगन के साथ हिन्दी के प्रचार-प्रसार में तन-मन और धन से लगे हुये हैं। वह भारतीयता का जज़्बा अभी ज़िन्दा है जिसको लेकर हिन्दी प्रेमी व्यक्तियों ने हिन्दी की कक्षाएँ शुरू की हैं। यह इन प्रवासी भारतीयों का योगदान है जो निरंतर भारतीय संस्कृति को बनाए रखने में लगे हुये हैं।
आज अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है। भारतीय बच्चों को भाषा और संस्कृति सिखाने के लिये जगह-जगह भारतीय शालाएँ प्रारम्भ हुई हैं। लोग साप्ताहिक कार्यक्रम के तहत मंदिरों में, घरों में या सार्वजनिक स्थानों में बच्चों को हिन्दी पढ़ाने में लगे हुये हैं। अमेरिकी शिक्षा विभाग का ध्यान भी इस ओर आकर्षित किया जा रहा है ताकि जर्मन, फ्रेंच, रूसी, चीनी और जापानी भाषाओं की तरह प्रत्येक स्कूल में हिन्दुस्तानी भाषा भी पढ़ाई जाये। यह उन्हीं प्रवासी हिन्दुस्तानियों की बदौलत, उनकी साहित्य निष्ठा की एवज आज यू.एस.ए में हिन्दी भाषा और अनेक मातृभाषाओं के सीखने-सिखाने की हलचल शुरू हो चुकी है। अमेरिका विश्व के उन देशों में से है जहाँ प्रवासी भारतीयों और भारतवंशियों की सबसे ज़्यादा उपस्थिति है, न्यूयार्क विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जहाँ भारतीय मूल के वासी अपनी प्रतिभा लगन और मेहनत से बनाए हुए हैं। हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिल रही है उसका एक मूल कारण है प्रवासी भारतीय, जो भारत की संस्कृति को जोड़ने का महत्वपूर्ण प्रयास करते आ रहे हैं। इस भाषा के विकास में अनिवासी भारतीयों तथा विद्वानों, लेखकों और शिक्षकों का योगदान है। इससे ज़ाहिर है कि जो जन देश से परदेस में जा बसा है और अपनी मात्रभाषा या राष्ट्रभाषा में साहित्य का स्रजन करता है, वह स्वदेशी साहित्य है, परदेसी नहीं। अपनी सोच से खींची हुई अगर ये भाषाई रेखाएँ व उनकी हदों सरहदों की लकीरें मिटा दें तो यह साफ़ साफ़ नज़र आएगा कि अपने देश की भाषा में रचित साहित्य देश का है, क्योंकि हम भारतवासी हैं और भाषा बोलते और लिखते वक्त हमारी वाणी व लेखनी द्वारा जाति के अध्याय का गौरव छलकता है, इस बात को नकारा नहीं जा सकता। हम इस देश के वारिस है, यहाँ की संस्कृति के वारिस हैं, अतिशयोक्ति न होगी कहने में में अँगरेज़ी माहौल के बीच में हिंदी भाषा व उस स्स्क्रुति को बनाये रखने की दिशा में जो लगन व निश्चय से काम कर रहे हैं वह काबिले तारीफ़ है। अँधेरों से एक सुरंग जिससे अपनी भाषा की रोशनी की किरणें फैलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उजाला प्रदान करने वाले साहित्य के सेनानी है उन्हें नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता।
भारतीय राष्ट्र की इमारत किसी विदेशी भाषा की नींव पर नहीं रखी जा सकती। भारतीय भाषा को सीखने और सिखाने के इस निष्फल प्रयास को अभिनंदन करते हुये यही कहा जा सकता है कि ये प्रवासी भारतीय सैनिक की भांति अपने वतन से दूर, गर्दिशों से जूझते, मुश्किलों के बीच से भाषा की एक सुरंग खोद रहे हैं जहाँ पर भारतीय भाषा और उस भारतीय संस्कृति को जीवंत रख कर ये सच्चे सिपाही इन्हीं संस्थाओं, शिक्षा घरों, विद्यालयों में तैनात अगर कुछ कर पा रहे हैं तो एकमात्र, हाँ एकमात्र वह सिर्फ़ हिन्दुस्तान की महिमा बढ़ा रहे हैं। अगर ऐसा न होता तो कौन पहचानता वहाँ पर हिन्दुस्तानियों को जो अब प्रवासी कहलाये जा रहे हैं और जो साहित्य वहाँ रचा जा रहा है उसे प्रवासी साहित्य से अलंकृत किया जा रहा है। हिन्दी साहित्य जहाँ भी लिखा जा रहा है देश में हो चाहे परदेश में वह हिन्दी साहित्य ही है।
महात्मा गाँधी ने विश्वग्राम का जो सपना देखते हुये कहा था- ”मैं नहीं चाहता कि मेरा घर चारों ओर दीवारों से घिरा रहे। न मैं अपनी खिड़कियों को ही कसकर बंद रखना चाहता हूँ। मैं तो सभी देशों की संस्कृति का अपने घर में बेरोक-टोक संचार चाहता हूँ।” आज विज्ञान के प्रसारित ज्ञान के एवज़ में इंटरनेट के द्वारा विश्व जुड़ता हुआ नज़र आता है। अपनी सारी भौगोलिक सीमाएँ तोड़कर एक ‘विश्वग्राम’ को साकार स्वरूप देकर। द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन मारिशस में प्रस्तुत डॉ. ओदोलेन स्मेकल के भाषण के एक अंश में हिन्दी-राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता के संदर्भ में कहा था- ”मेरी दृष्टि में जो स्वदेशी सज्जन अपनी मातृभाषा या किसी अपनी मूल भारतीय भाषा की अवहेलना करके किसी एक विदेशी भाषा का प्रयोग प्रात: से रात्रि तक दिनों दिन करता है, वह अपने देश में स्वदेशी नहीं, परदेशी है।”
हिन्दी की न केवल भौगोलिक परन्तु भाषागत सीमाएँ वास्तव में असीम हैं। इस सत्य के आइने में यह विचारधारा सरासर अनुचित है कि जो लेखक प्रवास में, देश से परे रहकर अपनी मातृभाषा में या राष्ट्रभाषा हिन्दी में लिखते हैं तो वह साहित्य ‘प्रवासी’ है। देश के वासी क्या वतन से दूर रहकर अपने देश के वासी नहीं रहते? क्या वे परदेशी हो जाते हैं? आज इसी बात को लेकर यह सवाल मन में उभरकर आता है कि अन्य भाषाओं की बात तो दूर है, पर विदेश में लिखी हुई हिन्दी भाषा के साहित्य को अपने देश के हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा का अंग भी माना जाता है या नहीं? हिन्दी का साहित्य और प्रवासी साहित्य एक है या नहीं? हालाँकि इस बात में कोई शक नहीं कि हिन्दी के प्रवासी साहित्य का रंग-रूप, उसकी चेतना और संवेदना भारत के हिन्दी पाठकों के लिये नई वस्तु है। ऐसा साहित्य जो अपनी मौलिकता एवं नये साहित्य संसार से हिन्दी साहित्य को समृध्द करता है।
कहानी संग्रह ‘प्रवासी आवाज़’ के प्रवेश पन्नों में डॉ. कमल किशोर गोयनका का यह अंश इस बात की ओर बखूबी इशारा कर रहा है कि अमेरिका में रचा हुआ यह संकलन हिन्दी की मुख्यधारा का अंग बनेगा। उनके शब्दों में- ”अमेरिका के 44 प्रवासी हिन्दी कहानीकारों की कहानियों का यह संकलन निश्चय ही हिन्दी में नई संवेदना, नया परिवेश, नयी जीवनदृष्टि तथा नये सरोकारों का द्वार खोलेगा।” संकलन के आआगाज़ी पन्नों में राजी सेठ का कथन हैं- ”हिन्दी साहित्य लेखन की मुख्यधारा में वृध्दि, समृध्दि और विश्वास का वातावरण पैदा करेगी। इतना ही नहीं, प्रवासी भारतीयों के इस योगदान के चलते सांस्कृतिक राष्ट्रीय धरातल पर उनका स्थान भी सुरक्षित करेगी। हिन्दी लेखन की मुख्यधारा को ऐसी समावेशिता के लिये कृतज्ञ होना होगा। अंजना का भी, जिसके यत्नों ने इन सब मुद्दों को विचारणीय और दर्शनीय धरातल पर ला दिया है।”
यह सब उदाहरण अपने संकेतों से स्पष्टीकरण कर रहे हैं कि साहित्य राजनीति नहीं है जिसके हम उसे किसी धारा के तहत रखें, परखें या नामकरण दें। साहित्य साहित्य है और कुछ नहीं। अगर भारत के हिन्दी साहित्य को एक धारा के अंतर्गत शामिल किया जाता है और प्रवासी हिन्दी साहित्य धारा को एक और धारा के अंतर्गत रखा जाता है तो फिर भाषा के विकास में उतनी गति नहीं आ पायेगी। भारत में लिखे जाने वाले हिन्दी साहित्य को अन्य देशों तक और अन्य देशों में साहित्यकारों की हिन्दी रचनाओं को भारत तक पहुँचाना एक महत्वपूर्ण कार्य है। आज जब हिन्दी राष्ट्र भाषा से विश्वभाषा बनने जा रही है उस राष्ट्रभाषा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी साहित्यकारों का बड़ा हाथ होगा, चाहे वो भारत देश का हो या भारत के बाहर रहने वाले प्रवासी भारतीय। जब राष्ट्रभाषा में इतना संगठन, इतना एकात्मपन न होगा कि वह एक भाषा में बात कर सके तो विचार करने योग्य बात है कि उस भाषा का प्रचार कैसे बढ़े। 1934, 29 दिसम्बर को भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास में एक भाषण में मुंशी प्रेमचंद के विचार ‘राष्ट्रभाषा और उसकी समस्याओं’ के तहत कुछ यूँ थे- ”मैं जो कुछ अनाप-शनाप बकूँ, उसकी खूब तारीफ़ कीजिये, उसमें जो अर्थ न हो, वह पैदा कीजिये, उसमें अध्यात्म के और साहित्य के तत्व खोज निकालिये…” तमिलनाडू हिन्दी अकादमी के अध्यक्ष डा॰ बालशौरि रेड्डी का इस विषय पर एक सिद्धाँतमय कथन है “हिंदी का साहित्य जहाँ भी रचा गया हो और जिसने भी रचा हो, चाहे वह जंगलों में बैठ कर लिखा गया हो या ख़लिहानों में, देश में हो या विदेश में, लिखने वाला कोई आदिवासी हो, या अमेरिका के भव्य भवन का रहवासी, वर्ण, जाति धर्म और वर्ग की सोच से परे, अपनी अनुभूतियों को अगर हिंदी भाषा में एक कलात्मक स्वरूप देता है, तो वह लेखक हिन्दी भाषा में लिखने वाला कलमकार होता है और उसका रचा साहित्य हिन्दी का ही साहित्य है।”
हिन्दी का साहित्य विश्व में, हिन्दी की अंतरराष्ट्रीयता को बुलंदी के साथ स्थापित कर रहा है, इस बात में कोई शक नहीं, चाहे वह मारिशस का हिन्दी साहित्य हो या अमेरिका का हिन्दी साहित्य, मास्को का हो या चीन का, सूरीनाम का हो या इंग्लैंड का। हिन्दी के साहित्य की हर धारा उसी में मिलकर एक राष्ट्रीय भाषा हिन्दी की सरिता जब बनकर बहेगी तब ही वह सैलाब अंतरराष्ट्रीय धरातल पर अपना स्थान पा सकेगा।
देवी नागरानी
न्यू जर्सी

(गर्भनाल के २१ वे अंक में प्रकाशित श्री कमल किशोर गोयनका से डा॰ सुधा ओम ढींगरा की बातचीत पर प्रतिक्रिया गर्भनाल के २४ वे अंक में)

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