गजल
शहर अरमानों का जले अब तो
शोले उठते हैं आग से अब तो
जान पहचान किसकी है किससे
हैं नक़ाबों में सब छुपे अब तो
चाँदनी से सजे हैं ख़्वाब मेरे
धूप में जलते देखि ये अब तो
ऐब मेरे गिना दिये जिसने
दोस्त बनकर मिला गले अब तो
मन की कड़वाहटों को पी न सकी
हो रही है घुटन मुझे अब तो
वहशी मँज़र जो देखा आंखों ने
ख़ुद ब ख़ुद होंठ हैं सिले अब तो
देवी’ दिल के हज़ार टुकड़े हैं
हम हज़रों में बंट गए अब तो. 64
tejwani girdhar, ajmer said,
मई 26, 2011 at 2:34 पूर्वाह्न
वाह क्या शब्द विन्यास है, जुग जुग जियो
जान पहचान किसकी है किससे
हैं नक़ाबों में सब छुपे अब तो
Devi Nangrani said,
मई 26, 2011 at 3:07 अपराह्न
Girdhar ji
Aapka bahut bahut abhaar is prenantmak tippni ke liye
shubhkamnaon sahit