किताब जिन्दगी की

किताब जिन्दगी की –डॉ. कृष्ण कन्हैया

 सोच को शब्दों में बुन कर, विचारों को भावनात्मक अंदाज़ में अभिव्यक्त करना एक सराहनीय रुझान है जो डॉ. कृष्ण कन्हैया की कृति “किताब ज़िन्दगी की ” में मिलता है I जिन्दगी तो हर कोई जीता है, पर उसे करीब से देखना, पहचानना, पहचान के उस अहसास के साथ जीना एक अनुभूति है I  उस जिये गए तजुर्बात को कलम की जुबानी पेश करना लेखक के लिए एक स्वाभाविक प्रक्रिया है — शायद कलम उसकी भावनाओं को जानकार, पहचानकर उसकी अभिवयक्ति के साथ इन्साफ़ करती है क्योंकि वह अंतरमन की खामोशियों की जुबान है I आईये सुनते हैं उन आहटों को कलम की ज़ुबानी..

ज़िन्दगी एक बंद किताब है / जिसे खोलने की कोशिश तब सही है

जब इसके पन्नों को दोनों तरफ से पढ़ा जाये                                                           

डा. कृष्ण कन्हैया, बिहार, भारत से आकर इंगलैंड, यू. के. के निवासी हैं, शिक्षा- एम.बी.बी.एस(आनर्स), अपने पेशे के दौरान ज़िंदगी को करीब से देखते है माना पर उस में बीते हुए पल पल का चिट्ठा अपनी शब्द सश्क्तता से जीवंत होने का आबास दिला जाता है. उनकी ज़ुबानी उनकी तनमयता सुनिये‍..”  कविता-शायरी के साथ-साथ संगीत का शौक विद्यार्थी जीवन

से था जो समय के साथ जिंदगी के जुड़ता चला गया। विदेश आने के        बाद अपनी संस्कृति का गर्व, अपने संस्कार की गरिमा, अपने गाँव की शुद्ध सौंधी ख़ुश्बू और अपनी मात्रभूमि से अनवरत लगाव मेरी अंतर्आत्मा को ज़्यादा उद्वेलित करती थी जिसकी झलक अब मैं अपनी कविताओं में महसूसता हूँ. चलिये उन के साथ सफ़र तय करते हैँ जहाँ आगे इस मर्म को स्पष्ट करते हुये डॉ.कृष्ण कन्हैया लिखते हैं –

जिंदगी एक ग्लास की तरह है /जिसमें उसके कार्यों का पानी भरा है “

आशावादी और निराशावादी सोच की कसौटी को मद्देनज़र रखते हुये उनका प्रगतिशील विचार किस तरह आपने आप को कितनी सरलता से एक जटिल सवाल का हल सामने रख पाया है —

“सच तो यह है कि/यह आधा, अधूरा सपना है

और इसे पूरा करने का संकल्प अपना है/प्रश्न है किः

देखने वाले की मानसिकता क्या है ?

इसे भविष्य में/पूरा देखना, या /पूरा खाली देखना !!

अपने अहसास को जिंदा रखने के प्रयास में ज़िन्दगी के उतर-चढाव को मुंह दिये बिना आगे के पड़ाव तक जाने का सवाल ही नहीं आता. एक दौर गुज़रता है तो राहें दूसरे मोड़ पर आ जाती है और दरगुज़र ज़िन्दगी आपने आगे एक विस्तार लिये हुये बाहें फैलाये रहती है जिसमें समोहित है गम-ख़ुशी, प्यार-नफ़रत के अहसास जो जिन्दगी की दौलत है. पर सफ़र तो सफ़र है, उनके शब्दों में आइये उन्हें टटोलते हैं-

“मेरे आरमान के आंसू /पलकों की कश्ती पर/ आँखों के सागर में /जिन्दगी के संग-संग

निरंतर तैरना चाहते हैं /किनारे तक जीना चाहते हैं” /

हां, अवसर है इस अधिकार को जीने का और लक्ष भी साफ़ है –

“मौत आती है /जब भी लगाती भूख उसे —-

कहाँ भक्ष्य जायेंगे बचकर /उनको तो आना ही आना है”  

दिल की दहलीज़ पर दस्तक देती हर आहट मानव को कहीं न कहीं आपने ही दिल की आप-बीती लगती है .जहाँ ऐसी संभावनाएं बाक़ी है, वहीं कलम की रवानी हर दिल से इन्साफ़ करती रहेगी, चाहे वह दिल किसी अमीर का हो या किसी गरीब का, किसी मजदूर का हो या किसी नेता का.      व्यक्ति समाज का दर्पण होता है और जैसे-जैसे आईने बदलते हैं, अक्स में बदलाव लाज़मी है. मन के मंथन में भावों और विचारों का सुन्दर सामंजस्य देखने- पढ़ने-सुनने को मिलता है. डॉ.कृष्ण कन्हैया जी ने सामजिक विषमताओं, राजनीतिक स्वार्थों, मानव मन की पीड़ा और विसंगतिओं पर करारी चोट करते हुये हर पहलू पर कलम चलायी है. उनमें से कुछ विषयों पर उनकी सुलझी हुई सोच दिल से दिल ताक को सन्देश पहुचाने में कामयाब हुई है…..जिसमें ‘समझौता, ‘पैसा’, ‘एहसान’ और ‘अच्छाई’ जैसे उन्वान शामिल है और उन्हीं में गहरे कहीं उनकी चिंतन-शक्ति और अनुभव की परिपक्वता सर्वत्र झलकती है .’अच्छाई’ में उनकी पारदर्शी विचारशैली, वस्तु व शिल्प अति उत्तम है . उनकी बानगी देखें –

अच्छाई की परिभाषा /दुनिया के मतलबी दौर में /बदलती जा रही है/ क्योंकि इसका प्रयोग लोग

अपनी बेहतरी के लिए करते हैं

‘इस्तेमाल’ नामक रचना में डंके की चोट पर अभिव्यक्त किये उनके विचारों से हम रूबरू होते हैं ,जहाँ लाचारगी को सियासती मोड़ पर खड़ा करते हुये वे कहते हैं-

“भले ही तुम्हारी मजबूरी है /पर औरों के लिए /रोज़गार का जरिया

सियासती दाव-पेंच ,या /अन्तर्राष्ट्रीय विवाद का विषय ”   

इसी कविता के अंतिम चरण में बेबसी की दुर्दशा पर रोशनी डालकर किस खूबसूरत अंदाज़ में अपना विचार अभिव्यक्त करते हैं-

“पर / तुम्हें मिलगा क्या -/ज़िल्लत, बेचारगी, झूठे प्रलोभन

हिकारत और असमंजस से भरी /ज़िन्दगी जीते रहने के सिवा” ?

इंसान का मन अपने अन्दर दोनों भाव लिए हुये है- राम-रावण, गुण के साथ दोष , सच के साथ झूठ, न्याय के साथ अन्याय और उन्हीं से बनती-बिगड़ती विकृत तस्वीरों को, सामान्य प्राणी की दुर्दशा को, घर के भीतर और बाहर सियासती दखल के विवरण को उनकी कलम की नोक अपने-आप को अभिव्यक्त कर पाई है .अपने ही निराले ढंग से-

“लूट, डाका,खून, फिरौती अब /एक फैलता विकसित रोज़गार है

जिसमें रक्षक और भक्षक दोनों /बराबर के हिस्सेदार हैं “

जिन्दगी से जुड़े जटिल सवालात के सुलझे जवाब को अपनी रचना में प्रस्तुत करने में उनकी महारत प्रगतिशील है, पढ़ते पढ़ते कहीं मन भ्रमित हो जाता है कि क्या ऐसा संभव है कि एक प्राणी, एक जीवन के दायरे में इतने सारे अनुभवों के मोड़ से गुज़रता हूआ जाये और अपने जिये गये उस तजुरबे को हंसते खेलते इन कागज़ के कोरे पन्नों पर इस माहिरता से उतारते जायें कि पाठक के सामने एक सजीव चित्र मानो चलने फिरने लगता है‍‍‍….बयाने अंदाज़ निराला है…

जिन्दगी एक दौर है /बैशाखी पर चलने की लाचारी नहीं

न हीं घुटनों के बल/ चलने का नाम है/ क्योंकि —

“जिंदगी की दौड़/ अतीत के खोये कन्धों पर सवार हो कर

या फिर /भविष्य की काल्पनिक उड़ान पर/ जीती नहीं जाती;

उसके लिए तो /वर्तमान की बुलंद बुनियाद चाहिए”   

कितने सशक्त शब्दों में समाज में फैले भ्रष्टाचार, अन्याय, अत्याचार, वाद-विवाद एवं उनकी विसंगतियों को उजागर किया है .सुलझे हुये विचारों से आज-कल और आने वाले कल की तस्वीर की मुक़म्मल नींव रखी है. जिन्दगी का यह स्वरुप एक न्यायात्मक पक्ष प्रकट करता है. ज़िन्दगी आज, कल और आने वाले कल के तत्वों से बुनी जाती है , जहाँ ‘आज’ ‘कल’ का साक्षी था, पर वर्तमान की बुनियाद पर टिके आनेवाले ‘कल’ का कौन साक्षी होगा -यह इतिहास बतलायेगा . ‘घड़ी’ नामक रचना भी इसी सन्दर्भ में पुख़्तगी बख्शती है —  “घड़ी —

समय के लय के साथ सुर मिलाना /हर क्षण वर्तमान से आगे बढ़ जाना

तेरी प्रगति का सूचक है/तूने अपने साये को/ विश्राम के पाये को/अपनी  अतीत की आँखों से

एक प्रतिबिम्ब की शक्ल में /कभी नहीं देखा” — 

जाने-अनजाने में रचनाकार का मन अनछुए पहलुओं को यूँ उजागर करता आ रहा है – सरल व आम बोल-चाल की भाषा में ‘व्यंजन’ नामक काविता को शब्दों में गिरफ़्त करते हुये, एक समां बांधते हुए उनकी मनोभावना की बानगी पढ़ें और महसूस करें  

“बुराई का व्यंजन/ उत्तम, सबसे उत्तम भोजन है /क्यूंकि जायकेदार होने के साथ- साथ

सस्ते दामों पर सर्वत्र उपलब्ध है :

व्यक्ति के व्यभिचार में/ हर घर, हर परिवार में /गाँव में, बाज़ार में / क्या पूरे इस संसार में”

अनेक परिभाषाओं के विस्तार से एक झलक ‘झूठ’ नामक कविता मन पर एक अमिट चित्र अंकित करती चली जाती है, शायद हर इक शख़्स ने इसका ज़ायका कभी न कभी ज़िन्दगी में लिया होगा. कहते हैं सच को गवाहों की ज़रूरत नहीं पार झूठ भी अनेकों बार बाइज़्ज़त रिहा होता है. शब्दों का कलात्मक प्रयोग बहुत ही सुलझे हुए तरीके से पेश किया है..आइये सुनते हैं कृष्ण कन्हैया जी का डंके की चोठ पर किया गया ऐलान……….

झूठ का व्यवहार —/ हत्या का चश्मदीद गवाह सच को सच नहीं बोलता —-

बोल-चल में सत्य की नगण्यता है —

और उसी झूठ की म्हणता मानते हुये स्पष्ट करते हैं –

“सूर्य की ऊष्मा /झूठ से ठंढी पड़ जायेगी /तब झूठ बोलने वाले यह मान कर चलेंगे कि

सच की यही परिभाषा है ”

अपनी सोच को एक शिल्पकार की तरह शब्दों में तराशकर कुछ ऐसे पेश करने में डॉ.कृष्ण कन्हैया कामयाब रहे हैं कि कभी, कहीं सोच को भी ठिठक कर सोचना पड़ जाता है, शायद सोच की भाषा बोलने लगती है, चलने लगती है, कभी तो चीखने लगती है. मन की बस्तियों के विस्तार से कुछ अंश, जो जिन्दगी जी कर आती है , वही अनगिनत अहसास, मनोभाव, उदगार और अनुभव लेखक ने खूब सजाये हैं अपनी जिन्दगी की किताब -“किताब जिंदगी की” में, जो अपने प्रयास से भी हमें अवगत करा रहे हैं कि लिखना मात्र मन व मस्तिषक का ही काम नहीं, पर सधा हुआ मनोबल भी उसमें शामिल हो तो कलम की स्याही और गहरा रंग लाती है… 

“विवेक की स्याही से /उत्साही उँगलियों द्वारा

दानिशमंदी का आकर /बनाने का नाम है” -और प्रमाण भी

“जिन्दगी की किताब” पाठकों से रूबरू होकर अपनी पहचान व उत्तम स्थान पायेगी. इसी शुभकामना के साथ —

देवी नागरानी,

न्यू जर्सी, dnangrani@gmail.com

पुस्तके नाम‍ः किताब ज़िंदगी की, लेखकः डॉ. कृष्ण कन्हैया, पन्नेः 104, मूल्यः Rs.125   

प्रकाशकः अक्षत प्रकाशन ए/१३४ हाऊसिंग कालोनी, मेन रोड, कंकरबाग़, पटना -८०००२०, बिहार ,भारत   

2 टिप्पणियां

  1. मई 21, 2011 at 2:09 पूर्वाह्न

    सटीक और बेहतरीन शब्द विन्यास के साथ की गई समीक्षा के लिए हार्दिक बधाई

  2. Sharda Arora said,

    मई 21, 2011 at 7:00 पूर्वाह्न

    झूठ का व्यवहार —/ हत्या का चश्मदीद गवाह सच को सच नहीं बोलता —-

    बोल-चल में सत्य की नगण्यता है —

    और उसी झूठ की म्हणता मानते हुये स्पष्ट करते हैं –

    “सूर्य की ऊष्मा /झूठ से ठंढी पड़ जायेगी /तब झूठ बोलने वाले यह मान कर चलेंगे कि

    सच की यही परिभाषा है ”

    kitna hi kuchh saty ko bayaan karta hua …achchhi lagi pustak ki vyakhya ..


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